होता साहब,
ये तो हर किसी को लगती हैं
फर्क तो सिर्फ इतना है कि
अमीर की भूख पैसो से भी पूरी नहीं होती है
और गरीबो की तो बासी रोटी से भी मिट जाती हैं।
ऐ काश!
कभी पड़े मुझ पे नजर टीवी के एंकरों की
मुझे मजहब की नहीं रोटी की तलब है
कभी आना
गाँव की गलियों में….
हम रहें या ना रहें
‘भूख’ मेजबां होगी…
देहाती,भूखा, प्रताड़ित, कलंकित और प्रेमहीन
जब धरते है शब्द इनके विभिन्न रूप
तब जो कविता जन्मती है उसे हम
एक ऊँचे दर्जे की लेखनी कहते है….
संक्रमण के चक्कर में,
कोई खाली पेट सो जाएगा ।
उसे सपने आएंगे,
के मेरा भोजन कहां से आएगा?
रोटी का एक टुकड़ा देंदे,
या पानी दो बूंद सही ।
राम भी खुश होगा तब ,
अल्लाह भी दिया जलायेगा।
भूख
पत्थर दिल भी
देख मंजर पिघल गया
भूख थी जिसे
भूख ने ही निगल लिया
बेघर था जो
खुदा के घर निकल लिया
माटी का जो बना
मिट्टी में मिल गया
जीने को उसका जी
फिर मचल गया
वो उसी मिट्टी में
फूल बन के खिल गया
सपने तो हमारे भी बेहद बड़े-बड़े थे,
कमबख्त, पेट की भूख उन्हें खा गई।
वो ही दाना भी देगा, जिसने चोंच दी है
इस अफ़वाह ने चिड़िया की जान ली है,
इबादत ना हो पायेगी अब हमसे तो
भूखी अँतड़ियों ने ये ज़िद ठान ली है।
भगवानो से एक ही सवाल पुछे है बच्चा यतीम
ये कमबख़्त भूख रोज रोज क्यों लगती है मुझे!
एक बंजर ज़मी पर आज फिर बरसे हैं बादल
फिर भूखे बच्चे को माँ ने सिर्फ़ पानी पिलाया है।
– सुप्रिया मिश्रा