
मनुष्य पुण्य का फल सुख चाहता है,
पर पुण्य करना नहीं चाहता
और पाप का फल दुःख नहीं चाहता
पर पाप छोड़ना नहीं चाहता
इसीलिए सुख मिलता नहीं है और दुःख भोगना पड़ता है!

आत्मा के लिए जीए, वह पुण्य है और,
संसार के लिए जीए तो निरा पाप है!

किसी भी स्थान पर किया गया पाप
धार्मिक स्थल पर समाप्त हो जाता है,
किन्तु धार्मिक स्थल पर किया गया
पाप समाप्त नहीं होता!

परोपकार सबसे बड़ा पुण्य
और परपीड़ा यानि दूसरों को
कष्ट देना सबसे बड़ा पाप है!

पाप नि:संदेह बुरा है,
लेकिन उससे भी बुरा है,
पुण्य का अहंकार!
पाप से सब साथ होता है,
पर भगवान रुठ जाते हैं,
और पुण्य से भगवान साथ देते हैं,
और सारे बुरे छूट जातें हैं!
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