अक्सर सोचता हूँ
बचपन का वो खुश रखने वाला
मैंने खिलौना कहाँ गुमा दिया ।।
Aksar Sochta Hun,
Bachpan Ka Wo Khush Rakhne Wala
Maine Khilona Kaha Ghuma Diya!
“बाल दिवस”
एक इच्छा है भगवन मुझे सच्चा बना दो,
लौटा दो बचपन मेरा मुझे बच्चा बना दो।।
चलो, फिर से बचपन में जाते हैं
खुदसे बड़े-बड़े सपने सजाते हैं
सबको अपनी धुन पर फिर से नचाते हैं
साथ हंसते हैं, थोड़ा खिलखिलाते हैं
जो खो गयी है बेफिक्री, उसे ढूंढ लाते हैं
चलो, बचपन में जाते हैं।।
बचपन की बात ही कुछ और थी,
जब घाव दिल पर नही हाथ-पैरों पर हुआ करते थे,
जब आँसू छुपाने के लिए तकिया नही माँ का आँचल जरूरी होता था,
जब रोने के लिए नींद नही नींद के लिए रोया करते थे,
जब ख़ुशी प्यार के चंद पलों में नही अच्छे गुण मिलने पर होती थी,
जब डर दिल के टुकड़े होने का नही पेन्सिल की नोख टूटने का होता था,
जब घबराहट नए चेहरों की नही नए शिक्षकों की होती थी,
जब संभलने के लिए एकांत वक़्त नही माँ की बाते होती थी,
बचपन तो बीत गया पर बचपना कभी बितना नही चाहिए ।
वो बचपन क्या था,
जब हम दो रुपए में जेब भर लिया करते थे।
वो वक़्त ही क्या था,
जब हम रोकर दर्द भूल जाया करते थे।
BACHAPAN……
Na girne ka dar
na smbhlne ke liye
sahare ki khoj
bas udne ki chah
badhne ka junoon
-MahimaBhele
बचपना वो बचपन का, मुझको जब याद आता है..
खुशियों की लहर सी उठती है, मन मेरा मचल सा जाता है…
मन में बसता था भोलापन, दिल में रहती थी नादानी…
खुशियों से उछल हम पड़ते थे, जब चलती थी अपनी मनमानी…
हर कोई अपना लगता था, मन में कोई भी बैर ना था…
हर किसी से थी अपनी यारी, उस वक़्त कोई भी गैर ना था…
ना समझदारी का दलदल था, न मन में थी कोई बेईमानी…
मन बिलकुल पारदर्शी था, जैसे हो स्वच्छ शुद्ध पानी…
आओ भीगे बारिश में
उस बचपन में खो जाएं
क्यों आ गए इस डिग्री की दुनिया में
चलो फिर से कागज़ की कश्ती बनाएं।
बचपन👧 में ही अपने छोड़ कर चले गए🙍।।
आँख🙄 खोलि तो सपने🙎छले गए😢।।
बाल मजदूरी उनका शौक नहीं हैं ,उनकी मजबूरी हैं |
नियम बनाने से कुछ नहीं होगा हल ढूंढना जरुरी हैं।
जेबों में उड़ने के सपने लिए वो अकेले जल रहे,
ईंटों के भट्ठौ में तपकर, अपने पेट भर रहे।
क्या चाहेगा कोई ऐसा बचपन?
ढोता हो कंधे पे भार, कहीं ढाबे में बरतन धोएं,
कभी बाल कृषक बनकर, किसी कोने में बैठ रोएं।
बड़ा शहर हो या छोटा गांव,
हर गली नुक्कड़ पर ये करते काम।
खाने की तलाश में, कूड़ा घर के पास में,
खेलने की उम्र में धूप में तपता जल रहा,
किताब-कलम से दूर क्षितिज पर ,
अपनी किस्मत के अंगारों से लड़ रहा।
उसके कोमल हाथों में है फावड़ा-कूदाल,
अपने अरमानों को वो रहा इस जीवन में ढाल।
देश की तरक्की में बाल- मजदूरी का तमाचा लगाता,
कि कैसे एक बचपन इस निर्ममता में खो जाता।
ग़रीबी से जूझ कर कहीं अपनी ही बेटी को बेचा जाता।
आलेख 24 और 39 को कोई समझ ना पाता।
अधिनियम तो बना दिए, क्या इन पर अमल किया गया?
नंगी ज़मीं खुलें आसमां के नीचे कैसे एक बचपन सो गया।।
Nice